Tuesday 14 April 2015

माँ

                                                               माँ
                                         कर्णिका जीवगण 
                                                  सातवी 'ब '

                                 बहुत कोमल बहुत निर्मल 
                                 याद हमें करती पलपल      
                                 वही तो देती है मनोबल 
                                 हर दम पास होती आज हो या कल 
                                 वही हमें दुनिया में लायी 
                                 हमें देख बहुत ख़ुशी पाई 
                                 अंत थक रहेगी बन कर परछाई
                                 है अनोखी यह भगवान की कृति 
                                 रोती हंसती सबकुछ करती  
                                 दुख कभी न अपना बतलाती 
                                 तुझसे ही सीखा मैंने चलना फिरना
                                 तुमने  ही न्योछावर किया मुझ पर प्यार का झरना!
                                 ममता की सागर है तू ,
                                 ग्नान का मंडार है तू 
                                 हमें अच्छा इंसान बताती है तू 


                               

                                 

Tuesday 8 July 2014

Grinding stones


चलती चक्की 




Looking at the grinding stones,
Kabir laments
In the duel of wheels,
Nothing stays intact. 
 

Monday 23 December 2013

अगले खम्भे तक का सफ़र

अगले खम्भे तक का सफ़र

याद है,
तुम और मैं
पहाड़ी वाले शहर की
लम्बी, घुमावदार,
सड़्क पर
बिना कुछ बोले
हाथ में हाथ डाले
बेमतलब, बेपरवाह
मीलों चला करते थे,
खम्भों को गिना करते थे,
और मैं जब
चलते चलते
थक जाता था
तुम कहती थीं ,
बस
उस अगले खम्भे
तक और ।

आज
मैं अकेला ही
उस सड़्क पर निकल आया हूँ ,
खम्भे मुझे अजीब
निगाह से
देख रहे हैं
मुझ से तुम्हारा पता
पूछ रहे हैं
मैं थक के चूर चूर हो गया हूँ
लेकिन वापस नहीं लौटना है
हिम्मत कर के ,
अगले खम्भे तक पहुँचना है
सोचता हूँ
तुम्हें तेज चलने की आदत थी,
शायद
अगले खम्भे तक पुहुँच कर
तुम मेरा
इन्तजार कर रही हो !
 

चार मुक्तक

अनूप भार्गव
राजस्थान में जन्मे अनूप भार्गव ने पिलानी से इंजीनियरिंग में स्नातक और उसके बाद आई आई टी दिल्ली से स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त की। पिछले काफी समय से वे अमेरिका के न्यूजर्सी राज्य में स्वतंत्र कंप्यूटर सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं।

वे अमेरिका में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के माध्यम से हिंदी संबंधी गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
उनका चिट्ठा- 'आओ कि कोई ख्वाब बुनें'यहाँ पढ़ा जा सकता है।

संपर्क :helloanoop@gmail.com 

चार मुक्तक

एक

प्रणय की प्रेरणा तुम हो
विरह की वेदना तुम हो
निगाहों में तुम्हीं तुम हो
समय की चेतना तुम हो

दो

तृप्ति का अहसास तुम हो
बिन बुझी सी प्यास तुम हो
मौत का कारण बनोगी
ज़िन्दग़ी की आस तुम हो

तीन

सुख दुख की हर आशा तुम हो
चुंबन की अभिलाषा तुम हो
मौत के आगे जाने क्या हो
जीवन की परिभाषा तुम हो

चार

सपनों का अध्याय तुम्हीं हो
फूलों का पर्याय तुम्हीं हो
एक पंक्ति में अगर कहूँ तो
जीवन का अभिप्राय तुम्हीं हो
 

Monday 9 September 2013

पागलपन

पागलपन

 

 माधवी कुटटी

अंग्रेजी की प्रख्यारत लेखिका कमला दास ( 31 मार्च, 1934- 31 मई, 2009)  मलयालम में माधवी कुटटी के नाम से लिखती थीं। उन्हेंल आत्म कथा ‘माई स्टोरी’ से काफी शोहरत मिली। केरल के त्रिचूर जिले में जन्मीं कमला दास की अंग्रेजी में ‘द सिरेंस’, ‘समर इन कलकत्ता’, ‘दि डिसेंडेंट्स’, ‘दि ओल्डी हाउस एंड अदर पोएम्स ’, ‘अल्फाेबेट्स ऑफ लस्ट’’, ‘दि अन्ना‘मलाई पोएम्सल’ और ‘पद्मावती द हारलॉट एंड अदर स्टोरीज’  आदि बारह पुस्तजकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मलयालम में ‘पक्षीयिदू मानम’, ‘नरिचीरुकल पारक्कुम्बोल’, ‘पलायन’, ‘नेपायसम’, ‘चंदना मरंगलम’ और ‘थानुप्पू’  समेत पंद्रह पुस्ताकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 1984 में कमला दास नोबेल पुरस्कामर के लिए नामांकित हुईं। इसके अलावा उन्हेंि एशियन पोएट्री पुरस्कारर(1998), केन्ट पुरस्काार (1999), एशियन वर्ल्डस पुरस्कारर (2000), साहित्यत अकादेमी (2003), वयलॉर पुरस्काोर (2001), केरल साहित्य9 अकादेमी पुरस्कालर (2005) आदि से सम्मादनित किया गया।
उनकी इस कहानी का अनुवाद युवा कवि‍ और अनुवादक संतोष अलेक्से ने कि‍या है-

कई लोगों से सुनने के बाद ही मैं यकीन कर सकी कि अरुणा पागल हो गयी है। दिल्ली से आने के दूसरे ही दिन मैं उसके घर गयी। अरुणा की सुन्‍दर नेपाली नौकरानी ने दरवाजा खोला। वह हँसी और उसके दाँतों में पान चबाने के कारण लगे दाग दिखाई दिये।
‘‘तुम्हारी मालकिन कहाँ है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘मालकिन बीमार है।’’ उसने कहा, ‘‘पाँच महीने हो गये।’’ उसके बताये हुये कमरे में मैंने देखा कि अरुणा ने लाल साड़ी पहनी हुई थी और चारपाई पर बैठकर छत की ओर देख रही थी।
‘‘अरुणा तुझे क्या हुआ।’’ मैंने पूछा, ‘‘तू इतनी दुबली कैसे हो गयी है।’’
वह आकर मरे गले लग गयी। उसके बालों में पसीने की गंध थी। अरुणा मेरे गले में हाथ डालकर मुझे देखती रही।
‘‘तू  इतने दिनों से मुझे मिलने क्यों नही आई ?’’ उसने पूछा, ‘‘क्या तू मुझे नापसंद करने लगी?’’
‘‘बता, तुझे कौन नापसंद करने लगा ? ’’
‘‘वो… मेरे पति।’’
‘‘मुझे विश्‍वास नहीं होता। तुझे गलतफहमी हो गयी है। तुझसे नफरत करने का कोई कारण ही नहीं है।’’
अरुणा बिस्तर पर लेट गई। ‘‘वह सब तू विश्‍वास नहीं करेगी विमला।’’ उसने कहा, ‘‘आजकल मेरी बातों का कोई विश्‍वास नहीं करता। वे कहते हैं कि मैं पागल हूँ। मैं बच्चों को सताती हूँ। चाकू से मैं लोगों को डराती हूँ। तूने यह सुना होगा।’’
‘‘ये सब बातें कौन फैलाता है।’’ मैंने पूछा।
‘‘मेरे पति और… बाकी सब। अब बच्ची भी मेरे पास नहीं आती। मेरी सास उसको ले गयी। पिछले महीने जब मैंने रोकर, हल्ला मचाया तब वे बच्ची को लेकर आये। लेकिन बच्ची ने दरवाजे पर खड़े होकर कहा,  ‘माँ,  तू पागल है’।’’
‘‘यह सब कब शुरू हुआ ?’’ मैंने पूछा।
‘‘मुझे याद नहीं है।’’ अरुणा ने कहा,  ‘‘मुझे समय का कोई ज्ञान नहीं है। वे कहते हैं कि मैंने पति की हत्या करने की कोशिश की, चाकू लेकर उनका पीछा किया। विमला! तू ही बता, क्या मैं यह सब कर सकती हूँ?’’
मैंने केवल सिर हिलाया।
‘‘पड़ोसी मुझसे डरते हैं। उन्होंने मेरी नौकरानी से पूछा कि मेरा पति मुझे पागलाखाने क्यों नहीं ले जाते ?’’
‘‘किसने कहा?’’ मैंने पूछा।
‘‘वही फूलमती। तू उसे जानती नहीं है न। अब वह इस घर की रानी है। अब मेरे पति के साथ बिस्तर भी बाँटने लगी है।’’
‘‘नहीं, अरुणा,  यह सब गलत है। तुझे गलतफहमी हो गयी होगी।’’ मैंने कहा।
‘‘मेरी बातों पर कोई विश्‍वास नहीं करता।’’ वह बुदबुदायी।
‘‘तू यहाँ से चली क्यों नहीं जाती?” मैंने पूछा, ‘‘अगर बात सही है तो अपमानित होकर यहाँ क्यों रहती है ?  तू अपने पिताजी के पास जा सकती है न ?’’
‘‘यह नहीं हो सकता।’’ अरुणा ने कहा, ‘‘बीच-बीच में रात को बत्ती जलाकर देखती हूँ तो पति को सोया पाती हूँ। दोनों हाथों के नीचे सिर रखकर बच्चों के समान सोते हैं। विमला,  मेरे पति कितने सुन्‍दर लगते हैं सोते हुये। उन्हें देखकर सारे दु:ख भूल जाती हूँ। नहीं,  मैं उनको छोड़कर कभी नहीं जाऊँगी। विमला तू समझ रही है न !’’

 

सुष्मिता बनर्जी की हत्‍या





भारतीय लेखिका सुष्मिता बनर्जी की हत्‍या की निंदा

सांप्रदायिकता और धार्मिक कठमुल्लापन की संरक्षक राजनीति के खिलाफ जनचेतना संगठित करना वक्‍त की जरूरत है : जसम

प्रकाशनार्थ/ प्रसारणार्थ

नई दिल्‍ली, 7 सितंबर 13

हम अफगानिस्तान में हुई भारतीय लेखिका सुष्मिता बनर्जी की हत्या की सख्त शब्दों में निंदा करते हैं। यह पूरे एशिया में मानवाधिकार, लोकतंत्र और आजादी पर बढ़ रहे हमले का ही एक उदाहरण है। इस हत्या ने सांप्रदायिक ताकतों और उनको शह देने वाले अमरीकन साम्राज्यवाद तथा नागरिकों की सुरक्षा और मानवाधिकार के लिहाज से विफल सरकारों के खिलाफ एशिया के देशों में व्यापक जनउभार की जरूरत को फिर से एक बार सामने ला दिया है। हालांकि तालिबान ने इस हत्या में अपना हाथ होने से इनकार किया है, पर इस धार्मिक कठमुल्लावादी संगठन, जिसे अमरीकन साम्राज्यवाद ने ही पाला-पोसा, का महिलाओं की आजादी और उनके मानवाधिकार को लेकर बहुत खराब रिकार्ड रहा है। इसने अतीत में भी अपने फरमान न मानने वाली महिलाओं की हत्या की है। यह हत्या अफगानिस्तान में काम कर रही भारतीय कंपनियों और भारतीय दूतावास पर होने वाले तालिबानी हमलों से इसी मामले में भिन्न है।

सुष्मिता बनर्जी एक साहसी महिला थीं। उन्होंने अफगानिस्तान के व्‍यवसायी जाबांज खान से शादी की थी और 1989 में उनके साथ अफगानिस्तान गई थीं। उन्होंने खुद ही लिखा था कि तालिबान के अफगानिस्तान में प्रभावी होने से पहले तक उनकी जिंदगी ठीकठाक चल रही थी, लेकिन उसके बाद जिंदगी मुश्किल हो गई। वे जो दवाखाना चलाती थीं, तालिबान ने उसे बंद कर देने का फरमान सुनाया था और उन पर ‘कमजोर नैतिकता’ की महिला होने की तोहमत लगाई थी। सुष्मिता ने अफगानिस्तान में क्या महसूस किया और किस तरह वहां से भारत पहुंची, इसकी दास्तान उन्होंने 1995 में प्रकाशित अपनी किताब ' काबुलीवालार बंगाली बोऊ ' यानी काबुलीवाला की बंगाली पत्नी में लिखा। इस किताब पर एक फिल्म भी बनी। हालांकि अभी हाल वे फिर अफगानिस्तान लौटीं और स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में अपना काम जारी रखा। अफगानिस्तान में सैयदा कमाला के नाम से जानी जाने वाली सुष्मिता बनर्जी स्थानीय महिलाओं की जिंदगी की हकीकतों का अपने कैमरे के जरिए दस्तावेजीकरण का काम भी कर रही थीं। अफगानिस्तानी पुलिस के अनुसार पिछले बुधवार की रात उनके परिजनों को बंधक बनाकर कुछ नकाबपोश बंदूकधारियों ने उन्हें घर से बाहर निकाला और गोलियों से छलनी कर दिया।

हम इसे अफगानिस्तान की परिघटना मानकर चुप नहीं रह सकते, मध्यपूर्व के कई देशों में जहां सरकारों के खिलाफ बड़े बड़े जनांदोलन उभर रहे हैं, वहां भी कट्टर सांप्रदायिक-धार्मिक शक्तियां और उनके साम्राज्यवादी आका अपनी सत्ता कायम रखने की कोशिशें कर रहे हैं। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप या दक्षिण एशिया में भी इस तरह की ताकतों ने सर उठा रखा है। तस्लीमा नसरीन को लगातार मौत की धमकियों के बीच जीना पड़ रहा है। आस्‍ट्रेलियन ईसाई मिशनरी के फादर स्‍टेंस की निर्मम हत्‍या भी भारत में ही हुई है। विगत 20 अगस्‍त को अंधविश्‍वास विरोधी आंदोलन के जाने माने नेतृत्‍वकर्ता डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्‍या कर दी गई और दो हफ्ते से अधिक समय बीत जाने के बाद भी अभी तक उनके हत्‍यारे गिरफ्त में नहीं आए हैं। बांग्ला देश में 71 के युद्ध के दौरान कत्लेआम करने वाले धार्मिक कट्टरपंथियों के खिलाफ उभरे जनांदोलन में साथ देने वाले नौजवान ब्‍लागर्स की हत्या हो चुकी है। बाल ठाकरे की मौत के बाद बंद को लेकर फेसबुक पर टिप्पणी करने वाली लड़की और उसे लाइक करने वाली उसकी दोस्त की गिरफ्तारी भी कोई अलग किस्म की परिघटना नहीं हैं। महज अफगानिस्तान में ही सरकार नागरिकों के जानमाल की सुरक्षा देने में विफल नहीं है, बल्कि भारत में भी यही हाल है। खासकर कई हिंदुत्ववादी संगठन देश के विभिन्‍न हिस्सों में सांप्रदायिक-अंधराष्ट्रवादी दुराग्रहों के तहत लोगों पर हमले कर रहे हैं, अपराधी बलात्कारी बाबाओं की तरफदारी में आतंक मचा रहे हैं और सरकारें उनके खिलाफ कुछ नहीं कर रही हैं। संप्रदाय विशेष से नफरत के आधार पर भारत में भी राजनीति और धर्म की सत्ताएं सामूहिक अंतरात्मा के तुष्टिकरण के खेल में रमी हुई हैं। इसका विरोध करने के बजाए तमाम शासकवर्गीय राजनीतिक पार्टियां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की हरसंभव कोशिशों में लगी हैं। दलित मुक्ति के प्रति प्रतिबद्ध लेखक कंवल भारती पर समाजवादी पार्टी के एक मंत्री के इशारे पर सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने का आरोप भी इसी तरह का एक उदाहरण है।

इसलिए सुष्मिता बनर्जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि सांप्रदायिकता, पितृसत्‍ता और धार्मिक कठमुल्लापन की प्रवृत्ति को संरक्षण देने वाली राजनीति और उसकी साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ साठगांठ के खिलाफ व्यापक जनचेतना संगठित की जाए। यह कठिन काम है, पर यह आज के वक्त में किसी भी समय से ज्यादा जरूरी काम है।

Saturday 15 June 2013

जन हितकारी शोध कागज पर सौर ऊर्जा

shrivastava

जन हितकारी शोध कागज पर सौर ऊर्जा

आज उर्जा के विभिन्न क्षेत्रों में तेजी से शोध कार्य हो रहा है। सभी शोधों का उद्देश्य अनवरत रूप से सस्ती व आवश्यक बिजली प्राप्त करना है। प्राकृतिक तौर से प्राप्त होने वाली सौर उर्जा को एकत्र कर रखना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। इसके लिए सौर सेल की आवश्यकता पढती है। जिसमे सूर्य से प्राप्त उर्जा को एकत्रित कर आवश्यकता अनुसार प्रयोग किया जा सके। पारम्पारिक रूप से सौर सेल में इस्तेमाल होने वाले इन्एक्टिव मटेरियल व अवयवो के कारण स्थान अधिक लगता है और अनेक परेशानियों का सामना करना पडता है।
अब नये शोध से उम्मीद की जा सकती है कि इस उर्जा के संग्रहण के लिए कागज या कपड़ों जैसी सस्ती सतहों पर सौर सेल को प्रिंट कर, सौर इंस्टालेशन की लागत भी काफी कम की जा सकेगी। खुले स्थानों पर प्रयोग के लिए इनको लेमिनेट कर वर्षा व तूफानी इलाकों में आसानी से प्रयोग किया जा सकेगा और सेल के फंक्शन पर कोई असर भी नहीं होगा। इन्हें आप मोड़कर अपनी जेब में रख सकते हैं। जेब से निकाल कर इस्तेमाल कर सकते हैं। बार बार मोड़े जाने पर भी इस कागजी सौर सेल की कार्य क्षमता पर कोई असर नहीं पडता। सूरज की रोशनी से इन्हे बिजली पैदा करते भी देख सकते हैं।

यह संभव हुआ है-करेन ग्लिसन, एलेक्जेंडर, माइकल कसेल व उनके मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के साथियों की शोध से। उन्होने साधारण कागज, कपड़े या प्लास्टिक पर सौर सेल को प्रिंट कर इस दिशा में कांतिकारी उपलब्धि हासिल की है। इन्होंने कुछ नये विशेष पदार्थों का निर्माण कर यह भी सिद्ध कर दिया है कि इस प्रकार भी फोटो वोल्टिक सेल बनाए जा सकते हैं। वास्तव में यह किसी प्रिन्टर से फोटो या कोई सामग्री प्रिन्ट करने जैसा है। इसमें विशेष स्याही का प्रयोग किया जाता है। विशेष प्रिन्टर से कम से कम पॉच बार प्रिंटआउट लेने पर कागज पर रंगीन चतुर्भुजों जैसी शृंखला दिखाई देती है। यही कागज प्रिंट सौर सेल या सोलर सेल बन जाता है।

वर्तमान मे सौर सेल बनाने में जिस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है उसकी तुलना में नई तकनीक एकदम भिन्न है। मौजूदा तकनीक में तरल पदार्थों और उच्च तापमान की आवश्यकता पड़ती है। जबकि नए प्रिटिंग विधि में तरल पदार्थों के स्थान पर वाष्प का इस्तेमाल किया जाता है और इस विधि में तापमान एक सौ बीस डिग्री सेल्सियस से कम रहता है। इन सॉफ्ट कंडीशन के कारण साधारण कागज, कपड़े या प्लास्टिक पर प्रिन्ट करना संभव हो गया है। कागज पर फोटोवोल्टिक सेलों की शृंखला निर्मित करने के लिए कागज की एक ही परत पर इस नवनिर्मित पदार्थ की पाँच परतें जमा करनी पडती हैं। यह प्रक्रिया एक वैक्यूम प्रकोष्ट में करनी पढती है। सौर सेल बनाने के लिए एक प्रिंट आउट से काम नहीं चलता।

इसके पूर्व भी कई शोधकर्ताओं के द्वारा कागज पर प्रिंट सौर सेल तथा अन्य इलेक्ट्रानिक अवयवों को बनाने के प्रयास हुए किन्तु कागज की खुरदरी सतह तथा रेशे होने के कारण उन्हें पहले कागज पर एक विशेष कोटिंग की आवश्यकता पडती थी जिससे सतह चिकनी हो जाए। लेकिन वर्तमान शोध के माध्यम से साधारण कागज, टिश्यू पेपर, ट्रेसिंग पेपर, कपड़े व प्लास्टिक यहाँ तक की न्यूजप्रिंट पेपर पर भी प्रिंट कर सौर सेल बनाया जा सकता है, और यह इन सभी पर बेहतरीन कार्य भी करता है। पारम्पारिक सौर सेल उनमें इस्तेमाल होने वाले इन्एक्टिव मटेरियल व अवयवो के कारण बहुत महँगे होते हैं इनकी तुलना प्रिंट सौर सेल सस्ते होंगें।
 संपर्क- bdshrivastava@gmail.com